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भीष्म साहनी : जीवन की आस्था के अलहदा रचनाकार Bhishan Sahani Jivan ki aashtha ke alahada rachnakar

सन 1988 का वह दौर था जब मैं किरोड़ीमल शासकीय महाविद्यालय रायगढ़ में एम.एस-सी.प्रीवियस का छात्र था ।अपने गाँव जुर्डा, जो रायगढ़ शहर से लगभग आठ किलोमीटर दूर है, वहां से रोज कॉलेज अपनी साइकिल से आता-जाता था । गणित बिषय का छात्र होने के बावजूद मुझे साहित्य से गहरा लगाव था , स्कूली जीवन से ही पाठ्यपुस्तक की कहानियों के जरिये पढ़ने की अभिरूचि पैदा हो चुकी थी । कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाएँ कभी-कभार मेरी  पहुँच के भीतर हो जाया करती थीं , विद्यार्थी जीवन में अभावों के बावजूद कभी-कभार जेब खर्च के पैसों से इन्हें खरीदकर भी पढ़ लेता था ।उन दिनों रायगढ़ रेलवे स्टेशन इसलिए भी जाता था कि व्हीलर में रखी पत्र-पत्रिकाओं को देख सकूं । कई बार इच्छा होती थी कि कुछ पत्रिकाएँ , किताबें खरीदूं पर जेब में पैसे नहीं होते थे और मैं मायूस होकर लौट आता था । इसके बावजूद मेरे भीतर कहीं एक दबी हुई इच्छा रह गई थी कि अक्सर मैं वहां जाता रहा । इस जाने में एक उम्मीद थी जो वहां रखी किताबों में मुझे नजर आती थी । मेरे गाँव में उन्हीं दिनों पंचायत में एक ब्लेक एंड व्हाईट टीवी सरकार की ओर से उपलब्ध करवाई गयी थी जो पंचायत भवन में लगी थी जिसमें दूरदर्शन के धारावाहिकों को बड़े चाव से गाँव के लोग एक साथ बैठकर देखा करते थे । 

यह गाँव में एक तरह से दूरदर्शन युग की शुरूवात थी जिसमें रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक धूम मचाये हुए थे । उन्हीं दिनों मुझे तमस धारावाहिक देखने का अवसर मिला । भीष्म साहनी की किसी रचना को इस तरह देखे-समझे जाने का मेरे जीवन में यह पहला अवसर था। उनकी तमस धारावाहिक के बहुत से एपिसोड देख लेने के बाद उनकी रचनाओं को पढने-समझने को लेकर मेरे मन में गहरी दिलचस्पी उत्पन्न हो चुकी थी ।उसी समय यहाँ-वहाँ उनकी रचनाओं को खोजना मैंने शुरू किया । वह संचार प्रौद्योगिकी का युग नहीं था कि कोई मनचाही रचना हम नेट पर खोजकर पढ़ लें, गाँव में रहते हुए किताबों की दुनियां में मेरी वैसी कोई पहुँच भी नहीं थी कि मैं उनकी रचनाओं को जुटाकर पढ़ पाता, हाँ उस समय यहाँ-वहाँ तलाश  करने के बाद उनकी एक रचना चीफ की दावत पढने का मौका मुझे जरूर मिला । सच कहूँ तो इस कहानी को पढ़ने के बाद मेरे मन में कई तरह के सवाल उठने शुरू हुए थे। मन के भीतर की छटपटाहट सघन हो उठी थी।क्या ऐसा भी हो सकता है कि घर में माँ की हैसियत किसी फटी-पुरानी बदरंग वस्तु जैसी हो जाय जिसे किसी बाहरी व्यक्ति की नजर में छुपाने के लिए हमें उसे छुपानी पड़े ? यह एक ऐसा सवाल था जो मुझे परेशान किए जा रहा था ।इस सवाल को लेकर मेरी बेचैनी स्थायी हो गई थी और यही बेचैनी, मनुष्यता से परिचय कराने वाले भीष्म साहनी जैसे बड़े लेखक से जुड़ने का एक बड़ा कारण बनी । उन दिनों कहानी या उपन्यास को लेकर कोई शास्त्रीय समझ न होते हुए भी मुझे यह लगने लगा था कि भीष्म साहनी की रचनाओं में कोई तो ऎसी बात है जो मन को भीतर तक छू रही है।बिना नागा किए तमस के धारावाहिक लगातार मैं देखता रहा। बाईस-तेईस साल की उम्र में अगर यह समझ बनी कि धर्म के नाम पर दंगे होते हैं और उन दंगों के पीछे राजनीतिक षड्यंत्र एक बड़ा कारण होता है तो इस समझ के पीछे भीष्म साहनी की कालजयी रचना तमस ही थी जिसे देखकर जीवन की एक बड़ी सच्चाई से मेरा साक्षात्कार हुआ, जो अब तक एक रोशनी की तरह काम आ रही है। 1947 में देश आजाद हुआ, भारत-पाक विभाजन की त्रासदी से भी लोग जूझने लगे । हिन्दू मुस्लिम दंगों की विभीषिका के दृश्यों की गवाही हम बने । तमस इसी दंगे को लेकर लिखी गई औपन्यासिक रचना है जिसमें राजनीतिक षड्यंत्रों को भीष्म साहनी ने बड़े सहज ढंग से इस तरह लिख दिया है कि किसी युवा के भटके हुए राजनीतिक दर्शन को पटरी पर लाने का सामर्थ्य अपनी सघनता में इस रचना में विद्यमान है । भीष्म साहनी के प्रति पाठकीय झुकाव का एक कारण यह भी रहा । उन दिनों कादम्बिनी में सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी कालचक्र नाम से एक स्तम्भ लिखते थे , मुझे लगता था कि यह महत्वपूर्ण स्तम्भ है और मैं बड़े चाव से उसे पढ़ता भी था । यह उस समय की बात थी जब मैं भीष्म साहनी की किसी रचना से परिचित नहीं हुआ था , प्रेम चंद की छुट-पुट कहानियाँ (ईदगाह वगेरह)ही पढ़ सका था ।भीष्म साहनी की तमस और चीफ की दावत को जानने समझने के बाद कालचक्र का वह स्तम्भ मुझे व्यर्थ लगने लगा। सच कहूँ तो एक तरह के भटकाव से मैं बच गया और भीष्म साहनी की रचनाओं ने मुझे एक दिशा दी। उन जैसे रचनाकार के चमत्कारिक व्यक्तित्व से तमस रचना पर केन्द्रित धारावाहिक के माध्यम से ही मेरा आरंभिक परिचय हुआ था । उनके बारे में ,उनकी रचनाओं के बारे में जानने की इच्छा फिर प्रबल होने लगी और इस दिशा में फिर मैं आगे बढ़ता गया ।भीष्म साहनी जैसे रचनाकार को पढ़ने, जानने-समझने की ललक के कारण मैं यहाँ-वहाँ की लाइब्रेरी में जाने लगा। संयोग से किसी पत्रिका में उनकी कहानी वांगचू मिल गई। इसे पढने के बाद एक कच्ची समझ एक पकी हुई समझ में तब्दील होना शुरू हुई । प्रेमचंद को बचपन से पढ़ते रहने के बाद उसी धारा के किसी रचनाकार से मिलना जीवन में कुछ मिलने  जैसा लगने लगा । वांगचू एक ऐसे चीनी बौद्ध भिक्षु की व्यथा कथा है जिसे भारत देश की आबोहवा ,यहाँ की संस्कृति, यहाँ के लोग  हमेशा आकर्षित करते रहे । उसकी निखालिस इच्छा यहाँ रहकर उन संस्कृतियों का अध्ययन करना ही रही जिनमें सदियों से मानवता और शान्ति के स्वरों को साफ़ साफ़ सुने जाने का आग्रह मिलता है । ऐसे लोग दो देशों के बीच मानवता और शान्ति को स्थापित करने में सेतु की भूमिका निभा सकते हैं पर त्रासदी यह है कि पूरी दुनियां में ऐसे लोग आज संदेह की नजर से अधिक देखे जाने लगे हैं । चीनी बौद्ध भिक्षु वांगचू का कुछ दिनों के लिए भारत से अपने देश चीन की यात्रा करना और वहां मन न लगने के बाद पुनः उसका भारत लौट आना उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया और उसके उपर जासूस होने का संदेह इस कदर बढ़ गया कि उस पर हमारे देश की पुलिस नजर रखने लगी । उसे तरह तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा।उसके अब तक लिखे गए बौद्धिक दस्तावेज जिसे अपनी असल पूंजी अब तक वह समझता था , जिसमें उसकी धडकनें बसती थीं और सिर्फ उसके लिए ही जिसने अपना देश छोडकर भारत में रहना पसंद किया ,उन दस्तावेजों से भरे सन्दूक को भी पुलिस जब जब्त कर ले गयी और बहुत दिनों बाद काफी संघर्ष उपरान्त जब उन दस्तावेजों के अधिकांश हिस्से उसे नहीं मिल सके तो वह निराश हो गया । अंततः यही निराशा उसकी मृत्यु का कारण बनी । इस कहानी को पढकर आखिर किसका दिल न पसीजे ? किसके  भीतर इस व्यवस्था को लेकर आक्रोश उत्पन्न न हो?अफ़सोस कि इस व्यवस्था की विभीषिकाएँ अन्तराष्ट्रीय स्तर पर आज सभी देशों में और घनीभूत हुई हैं जिसे भीष्म साहनी आज से पचास साल पहले इस कहानी के माध्यम से कह गए । जब मैं इस कहानी को उन दिनों पहली बार पढ़ा तो प्रथम पाठ में एक पाठक की अपरिपक्व समझ की वजह से कुछ बातें छूट सी गयीं ।मैं उन बातों को समझने के लिए कहानी को दोबारा पढ़ने का प्रयास किया । कहानी तिबारा भी पढ़ने की मांग करने लगी । अन्ततः सारी बातें उस समय के युवा मन में समाने लगीं और लगने लगा कि भीष्म जी ही वह लेखक हैं जो मेरे प्रिय लेखक हो सकते हैं ।किसी लेखक का किसी पाठक के लिए प्रिय लेखक हो जाना वह प्रस्थान बिंदु है जहां से जीवन को जानने-बूझने की आकांक्षा और अधिक बलवती होने लगती है । भीष्म साहनी की रचनाओं को खोज खोज कर पढ़ने का फायदा यह हुआ कि मुझे दूसरे कथाकारों की कहानियां भी पढ़ने को मिलीं । मैं कमलेश्वर की कहानी चप्पल को पढ़ा , यशपाल की कहानी पर्दा को पढ़ा ,जैनेन्द्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य को पढ़ा, निर्मल वर्मा की कहानी लवर्स को पढ़ा , अमृता प्रीतम की कहानी यह कहानी नहीं को पढ़ा और धीरे धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ता गया । विभिन्न रचनाकारों की अनेक कहानियां  पढ़ लेने के बाद भी सहजता , संप्रेषणीयता ,मानवीय संवेदना के स्तर पर कहानी का जैसा स्वाद मुझे भीष्म जी की कहानियों में मिला वैसा स्वाद दूसरे लेखकों की अनेक श्रेष्ठ कहानियों को पढ़ लेने के बाद भी मुझे नहीं मिल सका । इस दरमियाँन तीन-चार वर्षों में मैंने भीष्म जी की कई कहानियाँ पढ़ लीं जिनमें गुलेलबाज लडका , चीलें , मुर्गी की कीमत , बाप बेटा , अमृतसर आ गया है , झूमर , दो गौरैय्या, त्रास, मरने से पहले, खिलौने , खून का रिश्ता इत्यादि प्रमुख हैं । जिस विसंगति या अंतर्विरोध को लेकर भीष्म जी की कहानियाँ सामने आती हैं वह मात्र व्यक्ति की स्थिति का अंतर्विरोध न होकर उसके आसपास के सामाजिक जीवन के अंतर्विरोध के रूप में उसके व्यक्तिगत जीवन में लक्षित होते हुए दृश्यमान होता है।

मैं यहाँ कहानी को लेकर भीष्म जी के लिखे विचारों को साझा करना जरूरी समझता हूँ क्योंकि इसके माध्यम से किसी लेखक को और भली भांति हम समझ सकते हैं।अपनी किताब "मेरी प्रिय कहानियां" में एक जगह भीष्म जी स्वयं लिखते हैं -

 कहानी की मूल प्रेरणा जीवन से ही मिलती है। कहीं न कहीं, कोई जाना-पहचाना पात्र, कोई वास्तविक घटना, उसकी तय में रहते हैं। पूर्णत: कल्पना की उपज कहानी नहीं होती, कम से कम मेरा ऐसा ही अनुभव है, जिंदगी ही आपको कहानियों के लिए कच्ची सामग्री जुटाती है, जहाँ हम समझते हैं कि कहानी हमने मात्र अपनी ‘सोच’ में से निकाली है, वहाँ भी उसे किसी न किसी रूप में जीवन का ही कोई संस्कार अथवा प्रभाव अथवा अनुभव का कोई निष्कर्ष उत्प्रेरित कर रहा होता है। पर जहाँ कहानी का पूरा ताना-बाना काल्पनिक हो, जो मात्र कल्पना के सहारे लिखी जाए, वहाँ कहानी के चूल अक्सर ढीले ही होते हैं, ऐसा मैंने पाया है। दृष्टान्त कथाओं की बात अलग है, वहाँ कहानी की समूची परिकल्पना ही विभिन्न स्तर पर होती है।मैं नहीं मानता कि कहानी मात्र आत्माभिव्यक्ति के लिए लिखी जाती है। सचेत रूप से, किसी लक्ष्य को लेकर भले ही उसे न लिखा जाता हो, परन्तु कला उस साझे जीवन की ही उपज होती है जो हम अपने समाज में अन्य लोगों के साथ मिलकर जीते हैं। कला हज़ारों तन्तुओं के साथ उस जीवन के साथ जुड़ी रहती है। जिस प्रकार का जन्म, मात्र लेखक के मस्तिष्क से नहीं होता, वैसे ही कहानी की उपादेयता भी मात्र लेखक के लिए नहीं होती। लेखक भले ही मर-खप जाए, पर उसकी कहानी जिन्दा रह सकती है, वह इसलिए कि वह कुछ कहती है जिसके साथ मानव समाज का सरोकार होता है। चेखव की कहानियाँ, सात समंदर पार बैठे लोग पढ़ते हैं, उनमें रस लेते हैं तो इसलिए कि वे हमें कुछ कहती हैं, हमारे सामने जीवन का कोई अन्तर्द्वन्द्व उघड़कर सामने आता है। साहित्य सामाजिक जीवन की ही उपज होती है, और समाज के लिए ही उसकी सार्थकता भी  होती है। लेखक के लिए यह अनुभूति भी बड़ी सन्तोषजनक होती है कि वह कहाँ पर जीवन की गहराई में उतर पाया है, मात्र छिछले पानी में ही नहीं लोटता रहा, कहीं जीवन के गहरे अन्तर्द्वन्द्व को पकड़ पाया है। उस अन्तर्विरोध को, जो हर युग और काल में समाज के अन्दर पाए जाने वाले संघर्ष की पहचान कराता है, उन शक्तियों की भी जो समाज को आगे ले जाने में सक्रिय हैं, इस अन्तर्विरोध को पकड़ पाना कहानी लेखक के लिए एक उपलब्धि के समान होता है। कहानी का सबसे बड़ा गुण मेरी नज़र में, उसकी प्रामाणिकता ही है, उसके अन्दर छिपी सच्चाई में जो हमें जिन्दगी के किसी पहलू की सही पहचान कराती है। और यह प्रामाणिकता उसमें तभी आती है जब वह जीवन के अन्तर्द्वन्द्वों से जुड़ती है। तभी वह जीवन के यथार्थ को पकड़ पाती है। कहानी का रूप-सौष्ठव, उसकी संरचना, उसके सभी शैलीगत गुण, इस एक गुण के बिना निरर्थक हो जाते हैं। कहानी ज़िन्दगी पर सही बैठे, यही सबसे बड़ी माँग हम कहानी से करते हैं। इसी कारण हम किसी प्रकार के बनावटीपन को स्वीकार नहीं करते-भले ही वह शब्दाडम्बर के रूप में सामने आए, अथवा ऐसे निष्कर्षों के रूप में जो लेखक की मान्यताओं का तो संकेत करते हैं, पर जो कहानी में खप कर उसका स्वाभाविक अंग बनकर सामने नहीं आते।

जब भीष्म जी की इन कही गई बातों को मैं पढ़ता हूँ तो उनके भीतर की दुनियां से थोड़ा और ठीक ढंग से परिचित हो पाता हूँ । लगता है उन जैसा सादगी पसंद और ईमानदार आदमी ही समाज के लिए कुछ ऐसा रच जाता है जिससे समाज को एक दिशा मिलती है , अँधेरे छंटने लगते हैं । आज हम जिस समाज में जी रहे हैं वहां षड्यंत्र की इतनी कलाबाजियां हैं कि मनुष्य के लिए कुछ भी तय कर पाना मुश्किल है । आसपास में घटित होने वाली हर घटना जिस रूप में दिखाई देती है वास्तव में उस रूप में वह न होकर एक छद्म लिए हुए होती है जिसे देख पाना संभव नहीं , उसे तो भीष्म साहनी जैसे कालजयी लेखक ही देख पाते हैं और अपनी रचना में उसे पिरोकर समाज को आगाह करते हैं । साम्प्रदायिकता के किले को तमस, और अमृतसर आ गया है जैसी रचनाओं के माध्यम से ढहाना भीष्म जैसे रचनाकार के लिए ही संभव है ।एक सहज सरल इंसान जिसकी भाषा पंजाबी हो , जो विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाता हो, वह हिन्दी समाज को अपनी रचनाओं के माध्यम से इस तरह समृद्ध करे , मेरे लिए यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं । 8 अगस्त 1915 को जन्मे और 11 जुलाई 2003 को इस दुनियां से विदा हुए भीष्म साहनी के शताब्दी वर्ष को गुजरे अभी कुछ वर्ष ही हुए हैं। शताब्दी वर्ष में हिन्दी समाज ने उन्हें जिस शिद्दत से याद किया वह उनकी प्रासंगिकता को नए रूप में परिभाषित करता है । साहित्य की पत्र पत्रिकाओं ने जिस तरह उन पर केन्द्रित अंकों का प्रकाशन किया वह भी उनकी श्रेष्ठता और विश्वसनीयता प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है, इस कड़ी में परिकथा पत्रिका का उन पर केन्द्रित अंक उनको बारम्बार पढ़े जाने और चर्चा किए जाने की मांग करता है । 

अपने जीवन काल में इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ को संगठन के स्तर पर मजबूत करने की उनकी कोशिशें भी मेरी नजर में कम महवपूर्ण नहीं है। उनका यह प्रयास भी एक उदाहरण प्रस्तुत करता है कि एक लेखक को जमीनी स्तर पर भी एक्टिविस्ट के रूप में अपनी भूमिका अदा करने की जरूरत है ।

रचनाकार भीष्म साहनी होने का अर्थ मेरी नजर में सिर्फ एक रचनाकार होना ही नहीं है बल्कि जीवन के प्रति आस्था जगाने वाला एक सीधा सच्चा इंसान भी होना है जो धर्म और सम्प्रदायवाद से परे रहकर मनुष्य को मनुष्य की नजर से देखे , उससे प्रेम करे । मनुष्यता को उसकी समग्रता में देखना और रचना ही शायद भीष्म साहनी होना है । भीष्म साहनी आज भी मुझे शनै: शनै: अँधेरे की गिरफ्त में जा रहे समय में एक प्रकाश पूंज की तरह लगते हैं ।

रमेश शर्मा

( पत्रिका 'गांव के लोग' अंक जन-फर-मार्च 2018 से साभार )

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भीष्म साहनी जी का जीवन परिचय । Biography of Bhishm Sahani

जन्म: भीष्म साहनी जी का जन्म सन 8 अगस्त1915 में रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ।

मृत्यु: साहनी जी की मृत्यु सन 11 जुलाई 2003 में हुई।


शिक्षा। Education 

उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में हुई। उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी का अध्यापन स्कूल में किया। गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में M.A. किया। पंजाब विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।

भीष्म साहनी जी का जीवन इतिहास: Life history of Bhishm Sahani

देश विभाजन से पूर्व उन्होंने व्यापार के साथ-साथ अध्यापन का कार्य भी किया। विभाजन के बाद उन्होंने  पत्रकारिता के साथ साथ इप्टा की नाटक मंडली में काम किया। मुंबई में बेरोजगार के दौर से भी गुजरे, फिर अंबाला के एक कॉलेज में तथा खालसा कॉलेज अमृतसर में अध्यापन का कार्य भी किया। 7 वर्ष विदेशी भाषा प्रकाशन गृह मास्को में अनुवादक के पद पर कार्यरत रहे। वे प्रगतिशील लेखक संघ तथा एफ्रो एशियाई लेखक संघ से भी संबद्ध रहें।


साहनी जी का साहित्यिक योगदान ।  Contribution of Bhishm Sahani to Indian Literature  

तमस उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। उनके साहित्यिक अवदान के लिए हिंदी अकादमी दिल्ली ने उन्हें शलाका सम्मान से सम्मानित किया।

साहनी जी की प्रमुख कृतियां: Famous Books of Bhishm Sahani

कहानी संग्रह: भाग्य रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियां, वांड्चू, शोभायात्रा, निशाचर, डायन।

उपन्यास: झरोखे, कड़ियां, तमस, बसंती, मय्यादास की माड़ी, नीलू नीलिमा निलोफर, कुंतो।

नाटक: माधवी, हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, मुआवजे।

बाल उपयोगी कहानी: गुलेल का खेल।

प्रमुख कृतियों की विशेषता: उनकी भाषा में उर्दू शब्दों का प्रयोग विषय को आत्मीय और सम्प्रेषण युक्त बनाता है। छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग एवम संवादों का वर्णन कहानी के कथ्य को प्रभावी एवं रोचक बनाते हैं।

टिप्पणियाँ

  1. भीष्म साहनी पर बहुत दिल से, बहुत शोध परक ढंग से लिखा गया आलेख मुझे बहुत पसंद आया। वांगचू कहानी पर टिप्पणी बहुत शानदार और स्तरीय है। धन्यवाद अनुग्रह।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपका शोधपरक आलेख पढ़कर मुझे यशस्वी कथाकार भीष्म साहनी जी की सरलता व अहंशून्यता की याद हो आयी। चरित्र अभिनेता ए.के हंगल जी के साथ उनकी यादें जुड़ी हुई हैं। भीष्म साहनी एक ऐसे रचनाकार थे जिन पर जितना भी लिखा जाए कम है, क्योंकि वे एक बहुमुखी प्रतिभा के इंसान थे, लेखक, कथाकार, अनुवादक,सामाजिक कार्यकर्ता, अभिनय, और इन सबसे बड़कर एक नेक दिल इंसान। मुझे याद है वह अविस्मरणीय दो दिन । प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में बिलासपुर में दो दिवसीय कार्यक्रम हुआ था, पापा जी के साथ मैं भी गया था। भीष्म साहनी एवं ए.के .हंगल के साथ अग्रसेन भवन में भोजन का अवसर हो या भाऊ समर्थ जैसे चित्रकार की एकल प्रर्दशनी या फिर सरकारी हाईस्कूल का वह प्रांगड़ जिसमें छत्तीसगढ़ की ख्याति प्राप्त लोकगायिका स्व.श्रीमती सूरूज बाई खांडे की प्रस्तुति हम साथ थे। दूसरे दिन रात में किसी हाईस्कूल के प्रांगण में लोकगायिका सूरज बाईं खाण्डे का कार्यक्रम था मुझे याद है भोपाल के वरिष्ठ साहित्यकार कमला प्रसाद पांडेय मंच का संचालन कर रहे थे। मंच में दो प्लास्टिक की कुर्सियों में भीष्म साहनी एवं ए.के.हंगल मंचस्थ थे, सबसे पहले मैंने पं. मुकुटधर पांडेय जी की दो किताबें उन्हें भेंट स्वरूप दिया। ए.के. हंगल ने गले लगाते हुए मुझसे कहा था "जाते समय मैं रास्ते में इसे जरूर पढूंगा"! फिर सूरुज बाईं खांडे का कार्यक्रम शुरू हुआ । लोकगायिका की कला से प्रभावित होकर दोनों विभूतियां उसी मंच के एक कोने में नीचे उखरु बैठ गए थे , मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।
    दूसरी बार भीष्म साहनी जी के रायगढ़ प्रवास के समय नटवर हाईस्कूल व मुकुटधर पांडेय जी का निवास स्थान भला कैसे भुलाया जा सकता है। मार्क्स वादी विचारक होते हुए भी उन्होंने अपनी रचनाओं में मानवीय मूल्यों को ही प्रमुखता के साथ रखा। वे सच्चे अर्थों में यथार्थवादी कथाकार व लेखक थे , जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति, समाज व राजनीति से उपजे संघर्षों को , जीवन मूल्यों को, मनुष्य के अन्तर्द्वन्द् को प्रगतिशील विचारधारा के साथ जोड़कर देखने की कोशिश की है। अगर मैं कहूँ कि भीषम साहनी मुंशी प्रेमचंद की परम्परा के कथाकारों में एक हैं तो गलत न होगा।

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    उत्तर
    1. बहुत सारगर्भित संस्मरण के साथ भीष्म जी को इस तरह आपने याद किया कि लिखना सार्थक लग रहा है। शुक्रिया बसंत भाई

      हटाएं

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हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा...

समकालीन कहानी के केंद्र में इस बार: नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी। सारा रॉय की कहानी परिणय । विनीता परमार की कहानी : तलछट की बेटियां

यह चौथा आदमी कौन है? ■नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी नर्मदेश्वर की एक कहानी "चौथा आदमी" परिकथा के जनवरी-फरवरी 2020 अंक में आई थी ।आज उसे दोबारा पढ़ने का अवसर हाथ लगा। नर्मदेश्वर, शंकर और अभय के साथ के कथाकार हैं जो सन 80 के बाद की पीढ़ी के प्रतिभाशाली कथाकारों में गिने जाते हैं। दरअसल इस कहानी में यह चौथा आदमी कौन है? इस आदमी के प्रति पढ़े लिखे शहरी मध्यवर्ग के मन में किस प्रकार की धारणाएं हैं? किस प्रकार यह आदमी इस वर्ग के शोषण का शिकार जाने अनजाने होता है? किस तरह यह चौथा आदमी किसी किये गए उपकार के प्रति हृदय से कृतज्ञ होता है ? समय आने पर किस तरह यह चौथा आदमी अपनी उपयोगिता साबित करता है ? उसकी भीतरी दुनियाँ कितनी सरल और सहज होती है ? यह दुनियाँ के लिए कितना उपयोगी है ? इन सारे सवालों को यह छोटी सी कहानी अपनी पूरी संवेदना और सम्प्रेषणीयता के साथ सामने रखती है। कहानी बहुत छोटी है,जिसमें जंगल की यात्रा और पिकनिक का वर्णन है । इस यात्रा में तीन सहयात्री हैं, दो वरिष्ठ वकील और उनका जूनियर विनोद ।यात्रा के दौरान जंगल के भीतर चौथा आदमी कन्हैया यादव उन्हें मिलता है जो वर्मा वकील स...

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्...

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।       ...

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें